रवि कुमार
अभी कुछ दिन पहले मैंने और मेरी टीम ने ऑनलाइन लीगल www.legalkosh.com लांच किया है जिसका मकसद सार्वजानिक हित के लिए ऑनलाइन कानूनी शब्दावली और शब्दकोश बनाना है जो समुदाय द्वारा संचालित प्लेटफार्म है। इस पर कुछ बुद्दिजीवियों ने सुझाव दिया की यह काम तो सरकार है जो शब्दावली बनाती है। इस बात पर मुझे आश्चर्य हुआ और मैंने सोचा आपसे कुछ साझा करूँ।
सबसे पहले यह समझना ज्यादा महत्वपूर्ण है कि क्या भारत का संविधान किसी ऐसे कार्य करने से किसी को रोक लगाता है? अगर नहीं तो सरकार अपना कार्य करे और आम जनता अपना।
और दूसरा हजारों लोगों के रोटी का सवाल है। तथाकथिद शब्दावली तक पहुँचने से पहले मैं और मेरे साथी google और AI तक चंद सेकंड में पहुँच जाते हैं और अपना काम आसान कर लेते हैं। Web2.0 के जोड़ के आगे और बिग डाटा के जोड़ के सम्मुख बहुत सिद्दांत धराशाई हो गए और हो रहे हैं।
शायद आप इस बात से इंकार नहीं करेंगे कि पश्चिमी दुनिया और भारतीय उपमहाद्वीप के सरकारी कामकाज और इरादों में बड़ा अंतर है। पश्चिमी देश में सरकारी नीति और काम काज आम जनता की भलाई को टारगेट करके बनाया जाता है और नीतियाँ सिर्फ कागज़ तक सिमित नहीं होतीं, उन्हें मापा भी जाता है और जो जिम्मेदार हैं उन्हें जरुरत पड़ने पड़ दण्डित भी किया जाता है। भारत में न कोई माप दंड है और ना ही किसी सरकारी दामाद को दण्डित किया जाता है।
मेरा मानना है, अगर कोई हिन्दी के लिए सचमुच में निष्ठावान है तो उन सरकारी महकमे को समझाए जो आज भी अंग्रेजीयत के शिकार हैं और जो न सिर्फ जनता के पैसे से जीते हैं बल्कि अङ्ग्रेज़ी में पूरा का पूरा कानून बना डालते हैं। इतना ही नहीं आजादी के 71 साल के बाद भी उसी कानून को अङ्ग्रेज़ी में लागू भी करते हैं और जमीन से जुड़े उन हर इंसान को हेय दृष्टि से देखते हैं जो अपनी भाषा और मिट्टी से जुड़ा है।
चलिए मान भी लें की मानकीकरण जरुरी है। भारत के सदर्भ में जनता से फीडबैक लेकर कुछ लोग द्वारा बनाये गए थाकथित मानकी शब्दाबली जो प्रायः सरकार के किसी दफ्तर में रद्दी बने बैठें हैं, मुझे नहीं लगता इस सन्दर्भ में सरकार कुछ करेगी। हाँ अगर ज्यादा हल्ला मचाया जायेगा तो एक आध कमिटी बना दी जाएगी और कुछ लाख रुपये खर्च कर दिए जायेंगे शब्दाबली के नाम पर जो आम जनता तक कभी नहीं पहुंचेगा।
मैं एक बात से इंकार नहीं करता की शब्दों का मानकीकरण जरुरी है। अभी तक सरकार के द्वारा दिखाए गए रवैये से तो यही पता चलता है कि सरकार इस मामले में कुछ नहीं करने वाली। इसलिए "God helps those who help themselves" नीति अपनाया जाये।
मानकीकरण से पहले ज्यादा ज्वलंत कुछ मुद्दें हैं। जैसे सरकारी महकमा जो आज भी अंग्रेजीयत के शिकार हैं और जो न सिर्फ जनता के पैसे से जीते हैं बल्कि अङ्ग्रेज़ी में पूरा का पूरा कानून बना डालते हैं। इतना ही नहीं आजादी के 71 साल के बाद भी उसी कानून को अङ्ग्रेज़ी में लागू भी करते हैं और जमीन से जुड़े उन हर इंसान को हेय दृष्टि से देखते हैं जो अपनी भाषा और मिट्टी से जुड़ा है। उसी तरह शब्दों के मानकीकरण से पहले सरकार से कानून के मानकीकरण पर बातचीत किया जाये तो ज्यादा अच्छा होगा। कानून के मानकीकरण से शब्दों के मानकीकरण को पूरा करने में ज्यादा आसानी होगी।
जबतक सरकार मानकीकरण करके जनता के सम्मुख लाए (अभी 71 वर्ष तक तो नहीं हो सका) तबतक, जो जनता अपनी सहायता खुद कर रही हो उसे सरकारी पैजामा न पहनाया जाए। नहीं तो जो भी थोडा बहुत innovation बचा हुआ है उसे भी तिलांजलि मिल जायेगी।