Terminology and concepts related issues in Hindi glossary

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टर्मिनोलॉजी ओर कॉन्सेप्ट से जुड़ें हिंदी शब्दावली के मुददे

By Ravi Kumar

प्रशासनिक, न्यायिक, बैंकिंग, आईटी, वाणिज्य और कई ऐसे महत्वपूर्ण क्षेत्र है जिसमे सरल हिंदी में शब्दावली नहीं मिलती. ऐसे कुछ कॉन्सेप्ट हैं जो अंग्रेजी या दूसरी भाषाओं के ही होते हैं और उसका सीधा अनुवाद संभव नहीं होता क्योंकि वो कॉन्सेप्ट हमारे संस्कृति में ही नहीं होते. जो हमारे संस्कृति में नहीं है वो हमारे भाषा में भी आसानी से नहीं आता. ऐसी स्थिति में हिंदी की शब्दावली में कमी आ जाती है और उसे अंग्रेजी की शब्दावली से या फ़्रेंच की शब्दावली से या फारसी या उर्दू के शब्दावली से या दूसरे किसी भाषा की शब्दावली से आयात करना होता है. ऐसे शब्दों का आयात प्रायः बिना हिन्दी में सरलीकरण किये होता है और हम हमेशा पंगु बने रहते हैं.

दूसरा मुद्दा ये है कि जो भी आधुनिक जमाने में आविष्कार हो रहे हैं, वो ज्यादातर अमेरिका इंग्लैंड या कुछ विकसित देशों में हो रहे हैं और इसी कारण से वहाँ का व्यापार और अर्थव्यवस्था मजबूत है और उनकी भाषाओं में ज़ोर है. हमारे पास उनके शब्दों को आयात करना मज़बूरी है. इसके लिए अगर हम अपनी भाषा को जिम्मेवार ठहराएंगे तो मुझे लगता है कि यह अपनी भाषा के प्रति अन्याय होगा. हमारे समाज में इन्नोवेशन में नहीं हो रहा और अगर हो भी रहा तो उसका सही तरीके से मार्केटिंग और विकास नहीं किया जा रहा है . हमारे समाज में नए आविष्कार नहीं हो रहे और अगर हो भी रहे हैं तो बहुत नगण्य है. मतलब ये कि हम नए कॉन्सेप्ट का हिंदी में आविष्कार नहीं कर रहे ओर इन्हीं कारणों से हिंदी भाषा में नवीनीकरण नहीं हो रहा और आयात जरूर हो रहा है. ऐसी स्थिति में हमारी भाषा का विकास कैसे होगा. नए मूल शब्द कहाँ से बनेंगे?

इन बातों से स्वतंत्र होकर अगर हम हिंदी को देखेंगे तो मुझे लगता है कि हम हमेशा उलझे ही रहेंगे. किसी भाषा को उसके समाज के परिपेक्ष में, वहाँ की अर्थव्यवस्था के परिपेक्ष में, वहाँ के सामाजिक तथा राजनीतिक परिपेक्ष में जरूर देखना चाहिए. इन सबके बिना अगर हम राष्ट्र के भाषा को अकेले देखते हैं तो ना सिर्फ हम राष्ट्रीयता से दूर होते हैं बल्कि हम भाषाओं के तानाबाना में उलझे रह जाते हैं ओर पूरे राष्ट्र को कुंठित कर देते हैं.

इन सब बातों का अगर गहराई से अध्ययन किया जाए तो एक बात उभर कर सामने आती है. हिंदी भाषा या भारतीय भाषाओं के प्रति उदासीनता इसके लिए ये भाषाएँ जिम्मेवार नहीं है. अपनी भाषा के प्रति उदासीनता के लिए हम हम खुद जिम्मेदार हैं, हमारा हमारा सिस्टम भी उतना ही जिम्मेदार है, हमारा सामाजिक तानाबाना या माहौल जिम्मेवार है जिसके तहत नए आविष्कार नहीं पनप रहे और न ही कोई ठोस कदम उठाया जा रहा है और और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हमारी अर्थव्यवस्था कमजोर कमजोर होती गई क्योंकि हमलोगों ने एडहॉक पॉलिसी पर ज्यादा काम किया. कुछ हद तक हम भारतीयों का सोच भी इसके लिए जिम्मेवार है क्योंकि हम पश्चिमी दुनिया की बातों को, उनके आविष्कार को, उनके प्रॉडक्ट को बहुत बहुत उत्साह से आयात करते हैं और गर्व से अपनाते हैं और एक अच्छे उपभोक्ता बने रहते हैं.

दूसरी तरफ कुछ नेता या प्रशासनिक अधिकारी भी जिम्मेदार माने जा सकते हैं जो किसी विदेशी एजेंट की तरह काम कर रहे होते हैं और वे उन देशों के एजेंडा को हमारे संस्कृति और हमारे सिस्टम के साथ जोड़कर उनके एकाधिकार को बढ़ावा दे रहे होते हैं.

विडंबना ये है की हम ऐसे लोगों को चिन्हित नहीं करते और ना ही उनके विरोध में कुछ विशेष मुहिम छेड़ते हैं. हम एक उपभोक्ता की तरह जो कुछ भी परोसा जाता है उसका उपयोग करने लगते हैं और धीरे धीरे वो हमारे उसे अपना अंग बना लेते हैं और अपनी भाषा तक में घुसा लेते हैं. अगर हम इन चीजों को नहीं समझते तो हमेशा उलझन में ही रहेंगे.

इसीलिए मैं बार बार आप सभी का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ कि सिर्फ हिंदी शब्दावली बनाने से, या सिर्फ हिंदी में लिखने या पढ़ने से हिंदी अन्तर्राष्ट्रीय भाषा नहीं बन सकती. सिर्फ हिंदी में लिखने या पढ़ने वाले लोग करोड़ों में है लेकिन ऊपर दर्शित मुद्दों पर गहराई से शोध और चिंतन करने वाले लोगों की संख्या में बहुत कमी है और अगर हम उस पर ध्यान नहीं देंगे तो विदेशी अजेंडा के हमेशा से शिकार होते रहेंगे, और करोड़ों संख्या में हिंदी भाषी होने के बावजूद, हमें गुलामों की तरह विकसित देशों के उत्पाद को खरीदने वाला एक मार्केट ही समझा जाएगा.

हमें अगर भाषा के इस समुद्र में अपना झंडा ऊंचा रखना है तो सबसे पहले अपने में बदलाव लाना और आविष्कारक बनना जरूरी है. इसके साथ एक अच्छा मार्केटिंग करने की क्षमता बनाना जरूरी है कुछ अच्छे विचारक की भी जरूरत है, कुछ अच्छे शोधकर्ता की जरूरत है जो हमें दिशा देंगे. नहीं तो इस भाषा के समुद्र को एक बड़ा जाल बनने में समय नहीं लगेगा और जिस तरह से हम आजादी के 75 साल के बाद भी उलझे हुए हैं, आने वाले कई सालों तक भी उलझे ही रहेंगे.

मेरा आप सभी से यही निवेदन होगा कि अपने भाषा के प्रति, अपनी संस्कृति के प्रति, अपने राष्ट्र के प्रति , अपने समाज के प्रति, प्रेम भाव जगाने की कोशिश करें और वो अगर जब सही मायने में होने लगेगा तब हिंदी में हिंदी में अपने आप तेजी आ जाएगी. क्योंकि इसमें करोड़ों लोगों के माध्यम से वो शक्ति मौजूद है और जिसे भारत की बहल जनता ने अपनाया है. उसे सिर्फ एक चिनगारी की जरूरत है जो शोध, आविष्कार, इन्नोवेशन, मजबूत अर्थव्यवस्था जो सशक्त प्रशासनिक और न्यायिक  व्यवस्था से ही सुलगाया जा सकता है.